नैन सिंह रावत 187 वे जयन्ती पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं
नैन सिंह रावत (Nain Singh Rawat) का जन्म 21 अक्टूबर 1830 में पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील स्थित उत्तराखंड के सुदूरवर्ती मिलम गांव में हुआ था।
उनके पिताजी का नाम अमर सिंह था जिन्हें कि लोग लाटा बुढ्ढा के नाम से भी पुकारते थे। पहाड में लाटा अत्यधिक सीधे इन्सान अथवा भोले लोगों को मजाक में कहते हैं।
उनके पिताजी का नाम अमर सिंह था जिन्हें कि लोग लाटा बुढ्ढा के नाम से भी पुकारते थे। पहाड में लाटा अत्यधिक सीधे इन्सान अथवा भोले लोगों को मजाक में कहते हैं।
उनकी प्रारभिक शिक्षा गांव में ही हुई। उनके पिता भारत-तिब्बत के बीच होने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़े हुए थे। बड़े होने पर वे भी अपने पिता के साथ इसी काम में हाथ जुटाने लगे।
इससे उनकी तिब्बत के रीति-रिवाजों और विभिन्न स्थानों की जानकारी पुख्ता हो गयी थी और वे तिब्बती भाषा समझने-बोलने भी लगे थे। उनके इसी ज्ञान (knowledge) ने भविष्य (future) में उन्हें जासूस सर्वेक्षर और मानचित्रकार के रूप में सफल बनाया
इससे उनकी तिब्बत के रीति-रिवाजों और विभिन्न स्थानों की जानकारी पुख्ता हो गयी थी और वे तिब्बती भाषा समझने-बोलने भी लगे थे। उनके इसी ज्ञान (knowledge) ने भविष्य (future) में उन्हें जासूस सर्वेक्षर और मानचित्रकार के रूप में सफल बनाया
स्लागिंटवाइट बंधुओं के साथ अभियान (1855-1857)
हम्बोल्ट जो कि उस समय के जाने-माने जर्मन भूगोलवेत्ता, प्रकृतिवादी और खोजकर्ता थे, ने दो जर्मन वैज्ञानिकों स्लागिंटवाइट बंधुओं एडोल्फ और राबर्ट को सर्वे आॅफ इंडिया के आॅफिस में तिब्बत सर्वेक्षण में
मदद की प्रार्थना के लिए भेजा। अंग्रेजों ने बेमन से उनको अनुमति दे दी। दोनो जर्मन तिब्बत सीमा के जोहर घाटी आये और वहां उनकी मुलाकात देव सिंह रावत से हुई। देव सिंह की सलाह पर परिवार के तीन सदस्यों को मिशन के
लिए चुना गया उसमें नैन सिंह रावत(Nain Singh Rawat) भी शामिल थे। नैन सिंह दो साल तक इस कार्य में जुड़े रहे और इस दौरान उन्होंने मानसरोवर और राक्षस ताल झीलों के अलावा पश्चिम तिब्बत के मुख्य शहर गढ़तोक से लेह-ल्हासा तक की यात्रायें की थी।
हम्बोल्ट जो कि उस समय के जाने-माने जर्मन भूगोलवेत्ता, प्रकृतिवादी और खोजकर्ता थे, ने दो जर्मन वैज्ञानिकों स्लागिंटवाइट बंधुओं एडोल्फ और राबर्ट को सर्वे आॅफ इंडिया के आॅफिस में तिब्बत सर्वेक्षण में
मदद की प्रार्थना के लिए भेजा। अंग्रेजों ने बेमन से उनको अनुमति दे दी। दोनो जर्मन तिब्बत सीमा के जोहर घाटी आये और वहां उनकी मुलाकात देव सिंह रावत से हुई। देव सिंह की सलाह पर परिवार के तीन सदस्यों को मिशन के
लिए चुना गया उसमें नैन सिंह रावत(Nain Singh Rawat) भी शामिल थे। नैन सिंह दो साल तक इस कार्य में जुड़े रहे और इस दौरान उन्होंने मानसरोवर और राक्षस ताल झीलों के अलावा पश्चिम तिब्बत के मुख्य शहर गढ़तोक से लेह-ल्हासा तक की यात्रायें की थी।
शिक्षक के पद पर (1858-1863)
वहां से लौटने के बाद नैन सिंह अपने गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षक के रूप पर कार्य करने लगे। बाद में हेडमास्टर के पद पर उनकी पदोन्नती हई। उनके नाम के साथ अब पंडित पंडित शब्द जुड़ गया क्योंकि उस
समय शिक्षक अथवा ज्ञानी लोगों को पंडित कहने का रिवाज था।
वहां से लौटने के बाद नैन सिंह अपने गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षक के रूप पर कार्य करने लगे। बाद में हेडमास्टर के पद पर उनकी पदोन्नती हई। उनके नाम के साथ अब पंडित पंडित शब्द जुड़ गया क्योंकि उस
समय शिक्षक अथवा ज्ञानी लोगों को पंडित कहने का रिवाज था।
ग्रेट त्रिकोणमितीय सर्वे (1863-1875)
पंडित नैन सिंह और उनके भाई मणि सिंह को तत्कालीन शिक्षा अधिकारी एडमंड स्मिथ की सिफारिश पर कैप्टन थामस जार्ज मोंटेगोमेरी ने
जीटीएस के तहत मध्य एशिया की जानकारी के लिए चयनित किया था। उनका वेतन मात्र 20 रुपये प्रतिमाह था। इन दोनों भाईयों को देहरादून
स्थित सर्वे कार्यालय में दो साल तक प्रशिक्षण दिया गया था। बाद मे उनको दिया गया इसी तरह का प्रशिक्षण हर सर्वेयर के लिए अनिवार्य कर दिया गया।
पंडित नैन सिंह और उनके भाई मणि सिंह को तत्कालीन शिक्षा अधिकारी एडमंड स्मिथ की सिफारिश पर कैप्टन थामस जार्ज मोंटेगोमेरी ने
जीटीएस के तहत मध्य एशिया की जानकारी के लिए चयनित किया था। उनका वेतन मात्र 20 रुपये प्रतिमाह था। इन दोनों भाईयों को देहरादून
स्थित सर्वे कार्यालय में दो साल तक प्रशिक्षण दिया गया था। बाद मे उनको दिया गया इसी तरह का प्रशिक्षण हर सर्वेयर के लिए अनिवार्य कर दिया गया।
उन्हें एक निश्चित गति से चलना सिखाया गया जिससे उनका हर कदम एक निश्चित 33 इचं की दूरी ही तय करे। कदमों की संख्या गिनने के लिए उन्हें 100 मोतियों
वाली माला दी गई थी। एक माला खत्म होने का मलतब था कि वे कुल 10,000 कदम चले होंगें यानी उनके द्वारा एक माला में 5-मील की दूरी तय होगी।
वाली माला दी गई थी। एक माला खत्म होने का मलतब था कि वे कुल 10,000 कदम चले होंगें यानी उनके द्वारा एक माला में 5-मील की दूरी तय होगी।
धार्मिक सैलानी के भेष में नैन सिंह के बोरी-बिस्तर में कई यंत्र छिपे थे। चाय का मग दो तली था, जिसमें नीचे वाले हिस्से को पारे से भरा गया था इसके द्वारा
जिससे क्षेतिज ढूंढंने में मदद मिलती थी। उसकी छडी़ में एक थर्मामीटर छिपा कर रखा गया था जो कि ऊँचाई मापने मे मददगार होता है। पर सबसे महत्वपूर्ण
चीज नैन सिहं की प्राथर्ना-चक्र था, सामान्यतः प्रार्थना-चक्र में कागजों पर लिखे मंत्र भरे होते हैं परंतु नैन सिंह का जो विशेष प्रार्थना-चक्र था उसमे यात्रा की
जानकारी इकट्ठी की जानी थी जैसे कि दूरियों, नक्शों, उंचाईयों आदि का आंकड़ा। इन दोनों भाईयों के कोड नाम भी रखे गये जैसे नैन सिंह के लिए चीफ पंडित
और उनके चचेरे भाई के लिए सेकंड पंडित। यह विशेष नाम सर्वे करने वालों पर सदा के लिए चिपक गए और बाद में सभी सर्वेयर ‘पंडित’ के नाम से पुकारे जाने लगे।
जिससे क्षेतिज ढूंढंने में मदद मिलती थी। उसकी छडी़ में एक थर्मामीटर छिपा कर रखा गया था जो कि ऊँचाई मापने मे मददगार होता है। पर सबसे महत्वपूर्ण
चीज नैन सिहं की प्राथर्ना-चक्र था, सामान्यतः प्रार्थना-चक्र में कागजों पर लिखे मंत्र भरे होते हैं परंतु नैन सिंह का जो विशेष प्रार्थना-चक्र था उसमे यात्रा की
जानकारी इकट्ठी की जानी थी जैसे कि दूरियों, नक्शों, उंचाईयों आदि का आंकड़ा। इन दोनों भाईयों के कोड नाम भी रखे गये जैसे नैन सिंह के लिए चीफ पंडित
और उनके चचेरे भाई के लिए सेकंड पंडित। यह विशेष नाम सर्वे करने वालों पर सदा के लिए चिपक गए और बाद में सभी सर्वेयर ‘पंडित’ के नाम से पुकारे जाने लगे।
1865 में दोनों भाईयों ने अपना पहला अभियान शुरु किया। वे जानते थे पकड़े जाने पर उनको चीन मे मौत की सजा मिल सकती है क्योंकि उस समय वहां के
राजा ने जासूसी पर मौत की सजा निर्धारित की थी। इसलिए उनके लिए बेहद सावधानी बरतना अत्यंत आवश्यक था। अतः तिब्बती बार्डर पार करते वक्त उन्हें
अपना भेष बदल लिया। नेपाल पहुंचने पर दोनो भाई अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े। नैन सिंह ल्हासा जाने के लिए तिब्बत के बार्डर की ओर बढ़ा।
एक व्यापारियों के दल में मिल कर उसने तिब्बत में प्रवेश किया। रास्ते में व्यापारियों ने उसे धोखा दिया और उसके सारे पैसे लूट लिए पर उनके उपकरण
बच गये क्योंकि वह सब विशेष तरीके से छुपा कर रखे गये थे।
राजा ने जासूसी पर मौत की सजा निर्धारित की थी। इसलिए उनके लिए बेहद सावधानी बरतना अत्यंत आवश्यक था। अतः तिब्बती बार्डर पार करते वक्त उन्हें
अपना भेष बदल लिया। नेपाल पहुंचने पर दोनो भाई अलग-अलग रास्तों पर चल पड़े। नैन सिंह ल्हासा जाने के लिए तिब्बत के बार्डर की ओर बढ़ा।
एक व्यापारियों के दल में मिल कर उसने तिब्बत में प्रवेश किया। रास्ते में व्यापारियों ने उसे धोखा दिया और उसके सारे पैसे लूट लिए पर उनके उपकरण
बच गये क्योंकि वह सब विशेष तरीके से छुपा कर रखे गये थे।
नैन सिंह (Nain Singh Rawat) के पास अब खर्चा चलाने के लिए भी पैसे नहीं थे। स्थिति बहुत विकट हो गयी थी। लेकिन उन्होने हिम्मत
नहीं हारी (they did not loose hope) और यात्रा को जारी रखने का फैसला किया। खाने-पीने के लिए वह राहगीरों से भीख मांगते
और जहां जगह मिलती सो जाते। जनवरी 1866 में वे ल्हासा पहुंचे। वे एक धर्मशाला में कई हफ्ते ठहरे। वहां उन्होने उस क्षेत्र की विभिन्न भौगोलिक व
पर्यावणीय जानकारियाँ इकट्ठी की।
नहीं हारी (they did not loose hope) और यात्रा को जारी रखने का फैसला किया। खाने-पीने के लिए वह राहगीरों से भीख मांगते
और जहां जगह मिलती सो जाते। जनवरी 1866 में वे ल्हासा पहुंचे। वे एक धर्मशाला में कई हफ्ते ठहरे। वहां उन्होने उस क्षेत्र की विभिन्न भौगोलिक व
पर्यावणीय जानकारियाँ इकट्ठी की।
ल्हासा में दो कश्मीरी व्यापारियों को उनकी असली पहचान उजागर हो गयी थी पर उन्होने अधिकारियों से नैन सिंह की शिकायत नहीं की बल्कि
उसकी घड़ी के बदले कुछ रकम उधार दिये। पर अब नैन सिंह समझ चुके थे कि उनका ल्हासा में ज्यादा रुकना ठीक नहीं है। उन्होने अपने सारे उपकरण
इकट्ठे किये और एक कारवां में शामिल होकर वापस भारत लौट आये। 27 अक्टूबर 1866 को वे सर्वे के देहरादून स्थित मुख्यालय में पहुंचे और यात्रा की पूरी जानकारी दी।
उसकी घड़ी के बदले कुछ रकम उधार दिये। पर अब नैन सिंह समझ चुके थे कि उनका ल्हासा में ज्यादा रुकना ठीक नहीं है। उन्होने अपने सारे उपकरण
इकट्ठे किये और एक कारवां में शामिल होकर वापस भारत लौट आये। 27 अक्टूबर 1866 को वे सर्वे के देहरादून स्थित मुख्यालय में पहुंचे और यात्रा की पूरी जानकारी दी।
बाद में नैन सिंह (Nain Singh Rawat) ने दो और यात्राएं की। 1867 की अपनी दूसरी यात्रा के दौरान उसने पश्चिमी तिब्बत का दौरा
किया और वहां स्थित प्रख्यात ठोक-जालुंग (Thok-Jalung) सोने की खदानों को देखा। वहां के मजदूर केवल सतह को ही खोद रहे थे।
उनका मानना था कि गहरी खुदाई करना पृथ्वी के खिलाफ एक अन्याय होगा और उससे पृथ्वी की उर्वरता कम हो जायेगी। वहां उन्होने देखा कि सोना
इतना कम मात्रा में प्राप्त होता था कि उसे निकालने वालों से अधिक धनी तो भेड़ चराने वाले थे।
किया और वहां स्थित प्रख्यात ठोक-जालुंग (Thok-Jalung) सोने की खदानों को देखा। वहां के मजदूर केवल सतह को ही खोद रहे थे।
उनका मानना था कि गहरी खुदाई करना पृथ्वी के खिलाफ एक अन्याय होगा और उससे पृथ्वी की उर्वरता कम हो जायेगी। वहां उन्होने देखा कि सोना
इतना कम मात्रा में प्राप्त होता था कि उसे निकालने वालों से अधिक धनी तो भेड़ चराने वाले थे।
1873-75 के बीच नैन सिंह (Nain Singh Rawat) ने कश्मीर में लेह से ल्हासा की यात्रा की। पिछली बार वो सांगपो नदी के किनारे गये थे
इसलिए इस बार उन्होने उत्तर का रास्ता चुना।
इसलिए इस बार उन्होने उत्तर का रास्ता चुना।
अतुलनिय उपलब्धियां (Incredible achievements)
अंतिम अभियान का नैन सिंह की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा। अब तक उन्होंने कुल 16000 मील की कठिन यात्रा की थी और अपने यात्रा क्षेत्र का नक्शा बनाया था।
उनकी आंखें बहुत कमजोर हो गयीं। उसके बाद भी वो कई सालों तक अन्य लोगों को सर्वे और जासूसी की कला सिखाता रहा।
अंतिम अभियान का नैन सिंह की सेहत पर बुरा प्रभाव पड़ा। अब तक उन्होंने कुल 16000 मील की कठिन यात्रा की थी और अपने यात्रा क्षेत्र का नक्शा बनाया था।
उनकी आंखें बहुत कमजोर हो गयीं। उसके बाद भी वो कई सालों तक अन्य लोगों को सर्वे और जासूसी की कला सिखाता रहा।
नैन सिंह के काम की ख्याति अब दूर-दूर तक फैल चुकी थी। उन्होंने ग्रेट हिमालय से परे
कम जानकारी वाले प्रदेशों मध्य एशिया और तिब्बत की जानकारी दुनिया के सामने रखी थी। इन क्षेत्रों के भूगोल के बारे में उनकी एकत्र वैज्ञानिक जानकारी
मध्य एशिया के मानचित्रण में एक प्रमुख सहायक साबित हुई। सिंधु, सतलुज और सांगपो नदी के उद्गम स्थल और तिब्बत में उसकी स्थिति के बारे में विश्व को
उन्होने ही अवगत कराया था। उन्होने ही पहली बार यह पता किया कि चीन की सांगपो नदी और भारत में बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी वास्तव में एक ही नदी हैं।
कम जानकारी वाले प्रदेशों मध्य एशिया और तिब्बत की जानकारी दुनिया के सामने रखी थी। इन क्षेत्रों के भूगोल के बारे में उनकी एकत्र वैज्ञानिक जानकारी
मध्य एशिया के मानचित्रण में एक प्रमुख सहायक साबित हुई। सिंधु, सतलुज और सांगपो नदी के उद्गम स्थल और तिब्बत में उसकी स्थिति के बारे में विश्व को
उन्होने ही अवगत कराया था। उन्होने ही पहली बार यह पता किया कि चीन की सांगपो नदी और भारत में बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी वास्तव में एक ही नदी हैं।
1876 में नैन सिंह की उपलब्धियों के बारे में ज्योग्राफिकल मैगजीन में एक लेख लिखा गया। सेवानिवृत्ति के बाद भारत सरकार ने नैन सिंह को बख्शीश में एक
गांव और एक हजार रुपए का इनाम दिया। 1868 में राॅयल ज्योग्राफिक सोसायटी ने नैन सिंह को एक सोनेे की घडी़ पुरस्कार में दी। 1877 में इसी संस्था ने
नैन सिंह को विक्टोरिया पेट्रन्स मैडल से भी सम्मानित किया। मेडल से सम्मानित करते हुए कर्नल यूल के द्वारा कहे गये ये शब्द नैन सिंह की सम्पूर्ण संर्घष गाथा बता देती है।
गांव और एक हजार रुपए का इनाम दिया। 1868 में राॅयल ज्योग्राफिक सोसायटी ने नैन सिंह को एक सोनेे की घडी़ पुरस्कार में दी। 1877 में इसी संस्था ने
नैन सिंह को विक्टोरिया पेट्रन्स मैडल से भी सम्मानित किया। मेडल से सम्मानित करते हुए कर्नल यूल के द्वारा कहे गये ये शब्द नैन सिंह की सम्पूर्ण संर्घष गाथा बता देती है।
“…is not a topographical automaton, or merely one of a great multitude of
native employees with an average qualification. His observations have added
a larger amount of important knowledge to the map of Asia then those of any
other living man.” ‘….यह वो इंसान है जिसने एशिया के बारे में हमारे ज्ञान को बेहद समृद्ध किया।
उस समय कोई अन्य व्यक्ति यह काम नहीं कर सका।’
native employees with an average qualification. His observations have added
a larger amount of important knowledge to the map of Asia then those of any
other living man.” ‘….यह वो इंसान है जिसने एशिया के बारे में हमारे ज्ञान को बेहद समृद्ध किया।
उस समय कोई अन्य व्यक्ति यह काम नहीं कर सका।’
पैरिस स्थित सोसायटी आॅफ ज्योग्रफर्स ने भी नैन सिंह को एक घडी़ भेंट की। उनकी यात्राओं पर कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इनमें डेरेक वालेर की ‘द पंडित्य’
तथा शेखर पाठक और उमा भट्ट की ‘एशिया की पीठ पर’ महत्वपूर्ण है। जून 27, 2004 को भारत सरकार ने नैन सिंह के ‘ग्रेट ट्रिगनोमैट्रिकल सर्वे’ में अहम
भूमिका के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।
तथा शेखर पाठक और उमा भट्ट की ‘एशिया की पीठ पर’ महत्वपूर्ण है। जून 27, 2004 को भारत सरकार ने नैन सिंह के ‘ग्रेट ट्रिगनोमैट्रिकल सर्वे’ में अहम
भूमिका के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया।
अंतिम पड़ाव
लम्बी और दुष्कर यात्राओं के कारण नैन सिंह बीमार रहने लगे थे। सन् 1895 में 65 वर्ष की आयु में, जब वे तराई क्षेत्र में सरकार द्वारा दी गई जागीर की देखरेख के
लिए गये थे, इन महान अन्वेषक दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।
लम्बी और दुष्कर यात्राओं के कारण नैन सिंह बीमार रहने लगे थे। सन् 1895 में 65 वर्ष की आयु में, जब वे तराई क्षेत्र में सरकार द्वारा दी गई जागीर की देखरेख के
लिए गये थे, इन महान अन्वेषक दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया।
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